- अस्पतालों में महिला डॉक्टर और नर्स कैसे रहें सुरक्षित…?
शेख मुबारक – संपादक
प्रख्यात क्रिकेटर सौरव गांगुली को भी विरोध-प्रदर्शन के लिए सडक़ पर उतरना पड़ा है। पत्नी डोना गांगुली भी उनके साथ रहें। उन्हें बर्बर बलात्कार, महिलाओं पर अत्याचार और कार्यस्थलों पर असुरक्षा सरीखे मुद्दों पर विरोध जताना पड़ा है, क्योंकि सौरव-डोना भी एक बेटी के माता-पिता हैं। इधर कुछ घटनाओं ने उनकी आत्मा को झकझोर दिया है। सर्वोच्च अदालत में प्रधान न्यायाधीश जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता में तीन न्यायाधीशों की पीठ कोलकाता रेप-मर्डर कांड की सुनवाई कर रही है। सर्वोच्च अदालत ने इस कांड का स्वत: संज्ञान लिया है। बंगाल सरकार और पुलिस को खूब फटकार लगाई है और उनकी भूमिका पर कई सवाल उठाए हैं। सरकारें बड़ी मोटी खाल की होती हैं। फटकार का उन पर कोई असर नहीं पड़ता। बेशक संदर्भ कोलकाता अस्पताल में एक युवा टे्रनी डॉक्टर के साथ बर्बर बलात्कार और बाद में हत्या का है, लेकिन शीर्ष अदालत का सरोकार राष्ट्रीय है। खासकर अस्पतालों में महिला डॉक्टर और नर्स आदि कैसे सुरक्षित रहें, इसके मद्देनजर एक टास्क फोर्स बनाने और अस्पतालों की सुरक्षा केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (सीआईएसएफ) को सौंपने के महत्वपूर्ण फैसले सुनाए गए हैं। प्रधान न्यायाधीश की यह टिप्पणी देशवासियों की आत्मा में लगातार गूंजती रहनी चाहिए कि बदलाव के लिए देश एक और दुष्कर्म और हत्या का इंतजार नहीं कर सकता। टास्क फोर्स को अपनी अंतरिम रपट तीन सप्ताह में देनी है और अंतिम रपट दो माह की अवधि में देनी है। फोर्स महिला सुरक्षा के उपाय सुझाएगी। गौरतलब यह है कि ‘निर्भया कांड’ के एक साल बाद पूर्व प्रधान न्यायाधीश जस्टिस जेएस वर्मा की अध्यक्षता में सख्त ‘पॉक्सो एक्ट’ बनाया गया। उसके बाद ‘पॉश’ (प्रिवेंशन ऑफ सेक्सुअल हैरासमेंट ऑफ वूमन एट वर्कप्लेस) एक्ट बनाया गया। फांसी की सजा का प्रावधान रखा गया। क्या इन कानूनों ने बलात्कारियों को डराया? हमारी व्यवस्था में कई विसंगतियां हैं। करीब 2.43 लाख केस फास्ट टै्रक कोर्ट में लंबित पड़े हैं। इनमें पॉक्सो केस भी हैं।
हर रोज बलात्कार के केस आ रहे हैं और सरकारें फास्ट टै्रक कोर्ट के आश्वासन देती रहती हैं। पीडि़ता को इंसाफ मिलना बहुत दूर की कौड़ी है। बहरहाल अब मौजूदा संदर्भ में सर्वोच्च अदालत के अंतिम फैसले की प्रतीक्षा है, लेकिन आदमी की ‘पाशविक हवस’ अब दरिंदगी की हदें भी पार कर चुकी है। हम बलात्कारियों, हत्यारों को इनसान नहीं मान सकते, वे ‘जानवर’ से भी अधिक खौफनाक हैं। अब हालात ये बन गए हैं कि बेशक बेटी 3-4 साल की हो और स्कूल जाना शुरू ही किया हो। बेटी बड़ी होकर कॉलेज में पढ़ती हो अथवा गहन पढ़ाई करके डॉक्टर बनी हो और एक सरकारी अस्पताल में कार्यरत हो। बेटी कहीं जाने के लिए राज्य परिवहन की बस में बैठी हो या बाजार में किसी काम से गई हो। उम्र 60 पार कर चुकी हो और विधवा महिला हो! अब ऐसी बेटियां, नाबालिग या बालिग लड़कियां अथवा उम्रदराज विधवा महिलाएं कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं। वे सामूहिक दुष्कर्म का शिकार हो रही हैं। आखिर यह देश कैसा बन गया है? कोई भी राज्य इन जघन्य, बर्बर अपराधों से अछूता नहीं है। अभी तो सर्वोच्च अदालत के सामने वे ही तथ्य और आंकड़े आएंगे, जो पुलिस ने दर्ज किए होंगे। जिन्हें डर, खौफ के कारण दर्ज नहीं कराया गया अथवा पुलिस ने टालमटोल कर अपराध पर मिट्टी डाल दी, उन अपराधों का संज्ञान कौन लेगा? 2012 के नई दिल्ली के ‘अमानवीय’ निर्भया कांड के बाद भी 3.33 लाख बलात्कार किए गए हैं, जबकि 1971-2022 के लंबे कालखंड में 8.23 लाख बलात्कार के केस दर्ज किए गए थे। बलात्कार किस गति और अनुपात से बढ़ रहे हैं, आश्चर्य होता है। क्या देश में बेटियां, बहनें और महिलाएं सिर्फ ‘बलात्कार की वस्तु’ बनकर रह गई हैं? क्या अब वे ‘देवी’ नहीं रहीं? सर्वोच्च अदालत के न्यायाधीशों ने ऐसे हालात, परिवेश, अपराधों पर चिंता जताई है। उससे क्या होगा? कल ही 32 लंबे सालों के बाद औरतों को इंसाफ मिला है-आधा, अधूरा। 1992 में 100 लड़कियों के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया था। विशेष अदालत ने सिर्फ 6 अपराधियों को आजीवन कारावास की सजा दी है। मौजूदा संदर्भों में क्या न्याय मिलेगा, देखते हैं।