लोकतंत्र में लोगों के विकास में लाठी की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यह सर्वसत्य है कि बगैर लाठी खाये कोई आगे नहीं बढ़ता है। आगे बढ़ने के लिए लाठी खानी ही पड़ती है। स्कूल में पढ़े तब टीचर की छड़ी खाई। घर में रहे तो माता-पिता की छड़ी खाई। इससे जाहिर होता है कि लोकतंत्र में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिलेगा जिसने अपने जीवन में लाठी या छड़ी नहीं खाई हो। चाहे वह नेता हो, अभिनेता हो, पुलिस या प्रशासन का अधिकारी कभी न कभी अपने
जीवन में लाठी या छड़ी अवश्य खा चुके होते हैं।
एक बार की घटना है कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में छात्रों ने आंदोलन कर दिया था। उन्हें खदेड़ने के लिए पुलिस बुलाई गयी। पुलिस ने लाठी चलाकर आंदोलनकारी छात्रों को तो खदेड़ दिया। इसके बाद पुलिस की एक टीम एक कक्षा
में घुस गई। वहां एक अध्यापक छात्रों को पढ़ा रहे थे। पुलिसकर्मियों को अपनी ओर लपकता हुआ वे बोले-मैं रीडर हूं। मैं रीडर हूं। फिर क्या था पुलिसकर्मियों ने समझा की यही लीडर है और जमकर लाठियों से उसकी धुनाई कर दी। रीडर महोदय को अस्पताल में भर्ती करना पड़ा था।
जहिर है लोकतंत्र में लाठीतंत्र ही काम करती है। कोई भी आंदोलन हो लाठीधारी खड़े रहते हैं। अपने जिले में मुख्यमंत्री या अन्य मंत्री भी आते हैं तो चैक-चैराहे पर लाठीधारी खड़े कर दिये जाते हैं। नेता वोट के वक्त लोगों को तरह-तरह के आश्वासन देते हैं। लोभ और लालच देते हैं जब सत्ता में आ जाते हैं तो उनकी खुद की जिंदगी लाठीतंत्र के सहारे चलती है। अगर जनता उनके द्वारा किये गये वादों की याद दिलाये या आंदोलन करे तो वहीं नेता जनता पर लाठी चलाने का आदेश देता है। लाठी को देखकर बड़े-बड़े के होश उड़ जाते हैं। लाठी चलाने वाले यह नहीं देखते कि कौन व्यक्ति देश में कितनी उंची कद का है। लाठी चलाने वालों ने तो महात्मा गांधी और लोकनायक जयप्रकाश नारायण पर भी लाठी चलाई।
राजनीतिक दल जब सत्ता से बाहर रहते हैं तो सरकार पर लाठी चलाने का आरोप लगाते हैं, लेकिन जैसे ही वे खुद सत्ता पर काबिज होते हैं लाठी चलवाना शुरू कर देते हैं। कोई ऐसा सत्ताधारी दल आपको नहीं मिलेगा जो यह कहे कि आज से लाठीतंत्र पर अंकुश लगाया जाता है और अब मेरे शासनकाल में लाठियां नहीं चलेंगी। राजनीतिक दल यह जानते हैं कि बगैर लाठियों के सत्ता का खेल चल ही नहीं सकता है।
लोकतंत्र में एक और बात देखने को मिल रहीं है कि अपने साथ लाठीधारी या बंदूकरधारी लेकर चलना गर्व की बात हो गयी है। ऐसी प्रतिष्ठा मिलने के बाद नेता जनसंपर्क वाले नहीं बल्कि जन से फर्क वाले हो जाते हैं।
कई विधानसभाओं में भी जब माननीय उत्तेजित होकर माइक और कुर्सी-टेबुल पटकने लगे हैं तो उन्हें मार्शल के द्वारा कंधे पर उठाकर बाहर फेंकने की कार्रवाई की जाती है। जिसे आप लाठीतंत्र का ही एक दूसरा पहलू मान सकते
हैं। समाचार संकलन के दौरान पत्रकारों को भी लाठी का सामना करना पड़ा। यह अलग बात है कि लाठीधारियों को पत्रकार बताने पर उनकी आगे की लाठी नहीं चली।
पहले लोग कहते थे कि लाठी से भूत भी भाग जाता है। ओझा-गुणी भी लाठी या झाड़ू मारकर भूत भगाने का काम करते हैं। कई साधु महात्मा तो लाठी लेकर चलते हैं और लाठी सिर पर रखकर लोगों को आशीर्वाद भी दे देते हैं। बिहार के लोगों ने एक बार लाठी की महिमा को बखूबी पहचाना था इस लिए पटना के गांधी मैदान में तेल पिलावन, लाठी चलावन रैली का भी आयोजन किया था। जवानी में जितना चाहें लोग उछल-कूद कर लें लेकिन बुढ़ापे में लाठी का ही सहारा होता हैं। शायद ही किसी बुजुर्ग को आपने बगैर लाठी टेके हुए अपने कदमों पर चलते हुए देखा होगा।